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शुक्रवार, 31 मई 2024

नई बातें

एक वृद्ध आदमी बैंक जाता है, और काउंटर पर एक जवान (कैशियर) को रुपये 1000/- का निकासी चेक देता है।

कैशियर: सर, इतनी छोटी रकम आपको बाहर के एटीएम से निकाल लेनी चाहिए और मेरा समय बर्बाद नहीं करना चाहिए।

वृद्ध आदमी: मुझे 1000/- रुपये नकद देने में आपको क्या परेशानी है?

कैशियर: सॉरी सर, ऐसा नहीं हो सकता। आप या तो एटीएम जाएं या निकासी राशि बढ़ा दें।

वृद्ध आदमी: ठीक है, मैं न्यूनतम अनिवार्य राशि में से शेष अपने खाते से पूरी राशि निकालना चाहता हूं।

कैशियर वृद्ध के खाते की शेष राशि की जांच करता है, और यह रु. 80 लाख होती है।

वह कहता है_ "अभी हमारे पास तिजोरी में इतना पैसा नहीं है, लेकिन अगर आप मुझे 80 लाख रुपये का चेक देते हैं, तो हम कल नकदी की व्यवस्था कर सकते हैं"

वृद्ध आदमी: आप मुझे अभी कितनी राशि दे सकते हैं?

कैशियर: (बैंक का कैश बैलेंस चेक करता है) सर, आपको मैं सीधे 10 लाख दे सकता हूं।

वृद्ध आदमी 1000/- रुपये के चेक को फाड़ देता है, 10 लाख रुपये का नया चेक लिखता है और कैशियर को देता है।

केशियर जब तिजोरी में कैश लेने जाता है तो वह वृद्ध सार्वजनिक शेल्फ से नकद जमा पर्ची निकालकर उसमें भर देता है।

केशियर अंदर बैंक तिजोरी से नगदी लेकर वापस आता है, ध्यान से 10 लाख रुपये गिनता है,

बुजुर्ग आदमी को देकर कहता है - "सर, आप यह राशि ले सकते हैं, अब आपको इस रुपए के ढेर को खुद घर ले जाना है, लेकिन काउंटर छोड़ने से पहले गिनना, बाद में कोई शिकायत नहीं हो...

बुजुर्ग ने उस ढेर से रु. 500/- के दो नोट निकालकर अपने पर्स में रखते हैं, और कहते हैं -

"मुझे आप पर भरोसा है, बेटा, मुझे गिनने की जरूरत नहीं है। अब, ये रहा कैश डिपॉजिट स्लिप, ₹9,99,000/- प्लीज" मेरे खाते में वापस जमा करें और मुझे एक मुहर लगी हस्ताक्षरित काउंटर फ़ॉइल दें।

और हाँ, आप भी मेरी उपस्थिति में नकदी गिनें।"

कैशियर बेहोश...

कहानी का नैतिक सार: वरिष्ठ नागरिकों के साथ पंगा न करें, खासकर अगर वे सेवानिवृत्त हैं क्योंकि वे अब शेर नहीं बल्कि सवा शेर हैं...

😂😂🙏🙏

शुक्रवार, 24 मई 2024

कैसे होती थी बूथ कैप्चरिंग..

आइये, सिलसिलेवार जानते है!!

90 के दशक की माया मैगजीन का यह कवर है। चेहरा आप पहचानिये। स्टोरी का शीर्षक था, यह बिहार है।

तब यह बाहुबलियों का गढ़ था। आज भी है..
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राजनीति में गुंडागर्दी सन 70 के बाद शुरू हुई। जब जेपी आंदोलन ने अपना आगाज शुरू किया। उस वक्त जेपी ने कहा था- संघ मेरे आंदोलन की "मसल पावर" है।

इस मसल पावर ने 1973 से 75 तक खूब तोड़फोड़ की, सांसदों विधायको को घेरकर इस्तीफे करवाये। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का चलना मुहाल कर दिया।

पटना स्टेशन पर बम फटा, केंद्रीय रेलमंत्री मारे गए। कहीं पटरी उखड़ी, कहीं सरकारी दफ्तरों में धावे हुए। सीएम आवास के पास कुछ सरकारी मंत्रियों के बंगले जले। बसें वगैरह थोक में फूंकी गई। आखिर क्योकि जनता आ रही थी, सिंहासन खाली करवाना था।

यह हालात कमोबेश पूरे उत्तर में थे। इंदिरा गांधी ने हालात देख, इमरजेंसी लगा दी। प्रशासनिक जरूरत, लेकिन यह राजनीतिक रूप से आत्मघाती कदम था।
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अब उन्हें तानाशाह, विलेन की तरह देखा गया। 19 माह बाद जब माहौल शांत हुआ, इमरजेंसी हटाकर चुनाव कराए। कांग्रेस की नैया डूब गई। सत्ता देश मे बदली, और तमाम राज्यो में भी।

बिहार उनमें एक था। लीडिंग था। एक नई पोलिटीकल जमात उभरी थी। यह छात्र नेता थे। इन्हें मसल पॉवर का फायदा दिख गया था। इसी आंदोलन से कुछ दबंग नेता भी निकले।

ये नेताओ की मदद करते, रॉबिनहुड बने रहते। धमकी, हथियारों का प्रदर्शन होने लगा।
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तो बाहुबली, दरअसल सन 80 के आसपास से शुरू हुई फिनोमिना है। पहले कुछ बरस ये लोग, नेता के दाहिने हाथ, उसकी मसल पॉवर बने। जब समझ आया कि नेता की राजनीति तो उनके ही बूते चल रही है, वे खुद राजनीति में आने लगे।

इस दौर में सामाजिक परिवर्तन की चेतना बढ़ी। सोशल क्लैश हुए, तो सामाजिक समूहों के अपने-अपने बाहुबलियों के बीच भी क्लैश हुए। कुछ लोमहर्षक घटनाएं बिहार और यूपी में हुई।

धमक की राजनीति ने जड़े जमा ली, और बाहुबली खुद विधायक सांसद चुने जाने लगे। बूथा कैप्चर, सलेक्टिव बूथो के लिए ईजाद टेक्नीक बनी।
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10 साल बाद यह बदलने वाला था।

चुनाव आयोग, लोग समझते थे कि, कि मतपत्र छपवाना, कर्मचारी लगाना, गणना कराने वाला कोई निगम है। आयोग भी वैसा ही बिहेव करता था।

चुनाव मतपत्र से होता था। कर्मचारी, राज्य सरकार देती। पुलिस, गाड़ी वाहन राज्य सरकार देती। राज्य से जितना मिलता, आयोग उसी में काम करता।

फिर आये तिरूनेल्लई नारायण अय्यर शेषन। आम अफसर न थे। धीमी शुरुआत के बाद इन्होंने ताबड़तोड़ सुधार लागू किये।
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चुनाव आयोग एक संवेधानिक, ऑल पॉवरफुल बॉडी है। उसे हाथ जोड़कर,केंद्र और राज्य से कृपा मांगने की जरूरत नही थी। बल्कि वह तो सरकार ही हाईजैक कर लेती।

याने, अचार संहिता लगते ही, चुनाव आयोग प्रशासन हथिया लेता। जिलों के अफसर उलट पलट देता। ईमानदार डीएम-एसपी लगा दिये जाते। वे किसी नेता की सुनते ही न थे।

नियमो का कड़ाई से पालन होता। मतदान दलों के साथ पुलिस भेजना, स्थानीय कर्मचारियों को उसके चुनाव क्षेत्र से बाहर ड्यूटी देना उसके हाथ मे था। इससे बाहुबलियों को प्रशासन से मिला संरक्षण खत्म हो जाता।

फर्जी वोटिंग रोकने के लिए, इलेक्शन कमीशन ने वोटर आई कार्ड देना शुरू किया। इसमे फोटो लगा हुआ होता। वोट देते समय वह नम्बर दर्ज किया जाता। वोटर रोल का नियमित पुनरीक्षण किया जाता। मरे, खपे, माइग्रेट किये लोग हटा दिए जाते।

इसके पहले एक सिपाही, एक कोटवार ही मतदान की सुरक्षा करते। शेषन ने भारी मात्रा में केंद्रीय सुरक्षा बल भेजने शुरू किए। पूरे देश मे एक साथ चुनाव कराने के लिए उतनी सेना न थी। तो चरणों मे चुनाव होने लगे।

चुनाव 2 दिन नही, महीने डेढ़ महीने का काम हो गया।
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बूथ कैप्चरिंग का स्वर्णिम दौर, 1986-87 से 1993-94 तक रहा। जब ये सुधार नही थे।

दो गाडियों में भरकर आये दस बीस बंदूकधारी, बूथ पर कब्जा कर लेते। हवाई फायर कर, वोटरों को भगा देते। अब बचे मतदान दल के 3-4 कांपते हुए कर्मचारी, एक लाठी वाला सिपाही और कोटवार, वे चुपचाप किनारे सरक जाते।

कब्जा करने वाले बाहुबली की टीम, आराम से बैठकर, मतपत्र उठाती, ठप्पा लगाती, प्रेम से मोडती, डब्बे में डालती। एक दो घण्टे में ऑपरेशन खत्म।

तब न मोबाइल था, न मीडिया, न सुनवाई। अफसर, सरकार सबई अपनी थी। बात दब जाती।

लेकिन सच को रास्ता मिल जाता है। वीडियो कैमरे आ चुके थे, और नलनी सिंह जैसी कोई जांबाज पत्रकार इसका विडियोबाजी कर न्यूजट्रैक पर चला देती। सनसनी बनती।

ऐसी जगह पुनर्मतदान होता। भारी मात्रा में सेना बल लगाकर, देश में बूथ कैप्चरिंग को इतिहास के पन्नो में दफन कर दिया।

लेकिन श्रेय ले गयी, ईवीएम।
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ईवीएम का ट्रायल, होने लगा 1984 के आसपास ही। लेकिन शेषन ने इसके इस्तेमाल को बढ़ावा देना शुरू किया। लेकिन उनके दौर में दक्षिण भारत के कुछ विधानसभा चुनावों में इस्तेमाल हुआ।

मशीन का इस्तेमाल पूर्ण रूपेण होना शुरू हुआ, 1996 के बाद, उनके अगले चुनाव आयुक्त के समय।

तब चुनाव आयुक्त थे- एम एस गिल।

उन्होंने शेषन की परम्पराओ को मजबूती दी। मशीन ने इलेक्शन रिजल्ट क्विक कर दिए। वोट इनवैलिड होना बंद हो गया, क्योकि स्याही-ठप्पे गलत लगने, या गीला ही मोड़ देने के कारण यदि दाग किसी दूसरी जगह भी लगा है, तो उसे खारिज कर दिया जाता।

मशीन में इसकी संभावना नही थी।
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आप जान गए कि बूथ कैप्चर शुरू कैसे हुआ, रुका कैसे। जो कहते है कि मशीन ने बूथ कैप्चर रोक दिया, मूर्ख, अज्ञानी और व्हाट्सप वीर हैं।

आज भी सेंट्रल फोर्स हटा दीजिए, अधिकारियों को बेलगाम छोड़ दीजिए। मतदान दल को अरक्षित छोड़ दीजिए। बाहुबली बूथ को मजे से कैप्चर करके दिखा देंगे।

बटन दबा देंगे, ठप्पा लगा देंगे। क्येाकि मशीन, बूथ कैप्चर करने वालो को गोली नही मारती, सिक्योरिटी फोर्स मारती है।
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लेकिन सच तो यह भी मोबाइल कैमरे, और सोशल मीडिया के दौर में बूथ कैप्चर छुपना असम्भव है। उस जगह पुनर्मतदान करवाना पड़ जायेगा, जो नेचुरली ज्यादा सिक्योरिटी में होगा।

इसके बनिस्पत, मशीन के भीतर, अगर डेटा फेरबदल हो रहा है, आप देख नही पाएंगे। उससे धाँय धाँय की आवाज भी नही आएगी।
और हाथी, नाक के नीचे से निकल जायेगा।

जो इस बार 400 पार तक निकलने की तैयारी करके बैठा है।

गुरुवार, 23 मई 2024

आज के 'जेट युग' में सबसे कीमती वस्तु समय है।

आज के 'जेट युग' में सबसे कीमती वस्तु समय है। सबको सब कुछ झटपट चाहिए। मोबाइल में 5G स्पीड, खाने में फ़ास्ट फ़ूड , मनोरंजन के लिए शॉर्ट फिल्म्स, 30 सेकंड की रील आज की पीढ़ी विशेषकर युवाओं की पहली पसंद बन चुका है।

गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग में संपादक डॉक्टर धनेश द्विवेदी ने समय की इसी नब्ज को परखते हुए 'मेरी इकतीस लघु कथाएं' पुस्तक लिखी है। जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, यह किताब धनेश जी की इकतीस लघु कथाओं का संग्रह है। सभी कहानियां छोटी अवश्य हैं लेकिन संदेश बड़ा देती हैं। तमाम ज्वलंत विषयों को लेकर गागर में सागर भरने का प्रयास किया है धनेश जी ने।

समाज में व्याप्त भृष्टाचार, महंगाई, पैसा प्रेम, कुर्सी का किस्सा, स्त्रियों का दोहरा चरित्र, सास-बहू, माता-पुत्र के संबंधों से लेकर बेटा-बेटी में फर्क , दूसरे धर्म में विवाह और उसके परिणाम, समलैंगिक संबंध जैसे तमाम विषयों पर धनेश जी ने इशारों-इशारों में गंभीर कटाक्ष किया है।

'मिठाई की दुकान' शिक्षा को शुद्ध व्यापार समझने वालों पर व्यंग्य है , 'दोहरा चरित्र' नारी के कथनी और करनी में अंतर, 'पैसा' सबंधो पर भारी पड़ते धन के महत्व, 'दवाई' देश की चिकित्सा व्यवस्था पर प्रहार, 'लोभ का पत्थर' हृदय परिवर्तन, 'गुब्बारा' परहित, 'बहू का प्रेम' तथाकथित पढ़ी लिखी, कामकाजी स्त्रियों के घोर स्वार्थ, 'महंगाई' अपराध और खून की घटती कीमत, 'बेटे से बेटी भली' बेटियों के महत्व, 'गलत निर्णय' मेन विल बी मेन, 'पेट भर खाना' रक्षक के भक्षक बनने, 'सीख' तथाकथित कुत्ता प्रेमियों, ' भृष्टाचार' भृष्टाचार के अजर, अमर होने, 'रहम की भीख' राजनेताओं के यूज़ एंड थ्रो, 'मांस का लोथड़ा' दंगों की विभीषिका और परिणामों पर व्यंग्य करती है और गंभीर प्रश्न चिन्ह खड़े करती है। अन्य कहानियों में भी कुछ न कुछ संदेश , सीख या व्यंग्य छुपा हुआ है। सभी इकतीस कहानियां सच के बेहद नजदीक, हमारे समाज का दर्पण हैं।

पुस्तक लघु कहानियों के बड़े और गहरे प्रभाव के कारण तो पठनीय है ही परंतु इस पुस्तक की सबसे विशिष्ट खूबी यह है कि इसकी सभी कहानियों को चार भाषाओं - हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और रूसी भाषा में लिखा गया है। यह विशिष्टता लेखक की उक्त चार भाषाओं में समान अधिकार को तो दर्शाता ही है, साथ ही चार भाषाओं में लिखी गई यह विश्व की पहली लघु कथा पुस्तक है। 'गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्डस' ने इस अनूठी उपलब्धि के लिए इस किताब को उत्कृष्टता प्रमाण पत्र देकर सम्मानित किया है।

साहित्य के सुधी पाठकों से मेरा अनुरोध है कि प्रख्यात लेखक डॉक्टर धनेश द्विवेदी द्वारा लिखित और 'हिंदुस्तानी भाषा अकादमी' द्वारा प्रकाशित इस बहुभाषी और बहुमूल्य पुस्तक को अवश्य पढ़ें और एक टिकट में चार मूवी का आनंद लें।

प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई

प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी के आज से लगभग 50 साल‌ पहले के रचित अलग-अलग व्यंग्य लेखों से कुछ लाइनें चुन कर आपके समक्ष रखी हैं, जो‌ आज भी ताजा हैं और मिर्ची से भी तीखी लगेंगी.... -

# दिवस कमजोर का ही मनाया जाता है, जैसे कि हिंदी दिवस, महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मजदूर दिवस; कभी "थानेदार दिवस' नहीं मनाया जाता

# व्यस्त आदमी को अपना काम करने में जितनी अक्ल की जरूरत पड़ती है, उससे ज्यादा अक्ल बेकार आदमी को समय काटने में लगती है

# बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है;

# जिनकी हैसियत है वे एक से भी ज्यादा बाप रखते हैं, एक घर में, एक दफ्तर में, एक-दो बाजार में, एक-एक हर राजनीतिक दल में।

# आत्मविश्वास कई प्रकार का होता है, धन का, बल का, ज्ञान का, लेकिन मूर्खता का आत्मविश्वास सर्वोपरि होता है ।

# सबसे निरर्थक आंदोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आंदोलन होता है, एक प्रकार का यह मनोरंजन है जो राजनीतिक पार्टी कभी-कभी खेल लेती है, जैसे क्रिकेट या कबड्डी के मैच,

# रोज विधानसभा के बाहर एक बोर्ड पर ‘आज का बाजार भाव’ लिखा रहे, साथ ही उन विधायकों की सूची चिपकी रहे जो बिकने को तैयार हैं, इससे खरीददार को भी सुविधा होगी और माल को भी,

# विचार जब लुप्त हो जाता है, या विचार प्रकट करने में बाधा होती है, या किसी के विरोध से भय लगने लगता है, तब तर्क का स्थान हुल्लड़ या गुंडागर्दी ले लेती है

# धन उधार देकर समाज का शोषण करने वाले धनपति को जिस दिन "महा-जन" कहा गया होगा, उस दिन ही मनुष्यता की हार हो गई ।

# हम मानसिक रूप से दोगले नहीं तिगले हैं । संस्कारों से सामन्तवादी हैं, जीवन मूल्य अर्द्ध-पूंजीवादी हैं और बातें समाजवाद की करते हैं।

# फासिस्ट संगठन की विशेषता होती है कि दिमाग सिर्फ नेता के पास होता है, बाकी सब कार्यकर्ताओं के पास सिर्फ शरीर होता है

# दुनिया में भाषा, अभिव्यक्ति के काम आती है । इस देश में दंगे के काम आती है।

# जब शर्म की बात गर्व की बात बन जाए, तब समझो कि जनतंत्र बढिय़ा चल रहा है।

# जो पानी छानकर पीते हैं, वो आदमी का खून बिना छाने पी जाते हैं।

# सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं और स्वस्थ हैं, वे धन्य हैं।

# हीनता के रोग में किसी के अहित का इंजेक्शन बड़ा कारगर होता है।

# नारी-मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा कि ‘एक की कमाई से पूरा नहीं पड़ता;

# एक बार कचहरी चढ़ जाने के बाद सबसे बड़ा काम है, अपने ही वकील से अपनी रक्षा करना;

(एक ट्वीटर उपयोगकर्ता के ट्वीट से साभार लिया गया, उन्होंने भी कहीं और से साभार ही लिया था 😊🙏)

आदिवासी सदैव अविष्कारक रहे है

आदिवासी सदैव अविष्कारक रहे है ये हमारे छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में दाल परोसने वाला बर्तन है दिखिये ना प्रकृति पूजकों का कितना प्राकृतिक पात्र है।

बस्तर मे आदिवासी समाज दार-झोर / रसायुक्त दाल या सब्जी को परोसने के लिए बांस और पत्तो का ऐसा खूबसूरत पात्र बनाते है। रसीला पदार्थ ज़मीन मे गिरे नहीं इसलिए पत्तों की लाइनिंग महत्वपूर्ण हुनरमंदी है।

दुनिया की उत्पति हुआ तब गंजी बर्तन हंडी का विकास नहीं हुआ था तब से हमारे आदिवासी समुदाय के लोगों ने सामुहिक भोज में (* दार झोर) यानी रसा युक्त दाल या सब्जी को परोसने के लिए बांस से बने टेक्निक का अविष्कार किया ओर आज भी वो परम्परा कहीं न कहीं देखने को मिलता है।

बुधवार, 1 मई 2024

जिलाधिकारी के काम कौन-कौन से होते हैं?

आजकल जिलाधिकारी के काम…

आजकल जिले के कलेक्टर का काम सुबह उठ कर सोशल मीडिया पर पोस्ट करना है जनता का हाल जानना थोड़ी ना है।

ऑफिस जाते वक्त एक ठेले के पास रुक कर फल की फोटो खींच कर ट्वीट करना है कि "आपके यहां इसे क्या कहते हैं "।

ऑफिस पहुंचने के बाद कुर्सी में तनकर कर बैठकर कोट पैंट पहने वाली फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट कर मोटिवेशन देना है कि

"थोड़ा और मेहनत करलो फिर यहां पहुंच जाओगे",

फिर राउंड पर निकले क्योंकि कंटेंट तो सड़क पर है ऑफिस में थोड़ी है, एक पेड़ के नीचे पहुंच कर उसकी डाली पकड़ कर कहना है कि "पेड़ गांव में रह जाता है, फल शहर चला जाता है",

शाम हो गई पहुंचे घर वहां से बस एक और स्ट्रेटजी भरा पोस्ट कि मैं रात को सोने वक्त सर के बल खड़ा होकर करता था रिवीजन, वहां साहब के जिले की प्रजा तड़प रही है, भू माफिया जमीन पर जमीन कब्जा कर रहा है, खनन माफिया बढ़ते जा रहे हैं, लोग भूख से मर रहे हैं, लोग न्याय न मिलने से खुद को जिला मुख्यालय के सामने आंदोलन कर रहे हैं, प्रदूषण और गंदगी बढ़ती जा रही है, प्राइमरी स्कूलों की बिल्डिंगे धाराशायी होने को हैं, मगर सोशल मीडिया और कागज पर कलेक्टर साहब का सब काम चमाचम है।

साहब के सोशल मीडिया पोस्ट देख कर फॉलोअर कमेंट कर रहा है कि बेस्ट IAS ऑफिसर बस और क्या चाहिए.

ये कर सको तो समझो राजा हो, राजा छोटी मोटी चीजें देखकर विचलित थोड़ी नहीं होता है, बस दिमाग में एक बात रखता है कि जब मेरे से पहले वाले ने कोई काम नहीं किए तो मैं क्यूं करू और जब सब मैं ही कर दूंगा तो मेरे बाद वाला क्या करेगा, ये होती है साहब राजा वाली मेंटेलिटी।

धन्यवाद 🙏❤️