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शुक्रवार, 24 मई 2024

कैसे होती थी बूथ कैप्चरिंग..

आइये, सिलसिलेवार जानते है!!

90 के दशक की माया मैगजीन का यह कवर है। चेहरा आप पहचानिये। स्टोरी का शीर्षक था, यह बिहार है।

तब यह बाहुबलियों का गढ़ था। आज भी है..
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राजनीति में गुंडागर्दी सन 70 के बाद शुरू हुई। जब जेपी आंदोलन ने अपना आगाज शुरू किया। उस वक्त जेपी ने कहा था- संघ मेरे आंदोलन की "मसल पावर" है।

इस मसल पावर ने 1973 से 75 तक खूब तोड़फोड़ की, सांसदों विधायको को घेरकर इस्तीफे करवाये। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का चलना मुहाल कर दिया।

पटना स्टेशन पर बम फटा, केंद्रीय रेलमंत्री मारे गए। कहीं पटरी उखड़ी, कहीं सरकारी दफ्तरों में धावे हुए। सीएम आवास के पास कुछ सरकारी मंत्रियों के बंगले जले। बसें वगैरह थोक में फूंकी गई। आखिर क्योकि जनता आ रही थी, सिंहासन खाली करवाना था।

यह हालात कमोबेश पूरे उत्तर में थे। इंदिरा गांधी ने हालात देख, इमरजेंसी लगा दी। प्रशासनिक जरूरत, लेकिन यह राजनीतिक रूप से आत्मघाती कदम था।
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अब उन्हें तानाशाह, विलेन की तरह देखा गया। 19 माह बाद जब माहौल शांत हुआ, इमरजेंसी हटाकर चुनाव कराए। कांग्रेस की नैया डूब गई। सत्ता देश मे बदली, और तमाम राज्यो में भी।

बिहार उनमें एक था। लीडिंग था। एक नई पोलिटीकल जमात उभरी थी। यह छात्र नेता थे। इन्हें मसल पॉवर का फायदा दिख गया था। इसी आंदोलन से कुछ दबंग नेता भी निकले।

ये नेताओ की मदद करते, रॉबिनहुड बने रहते। धमकी, हथियारों का प्रदर्शन होने लगा।
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तो बाहुबली, दरअसल सन 80 के आसपास से शुरू हुई फिनोमिना है। पहले कुछ बरस ये लोग, नेता के दाहिने हाथ, उसकी मसल पॉवर बने। जब समझ आया कि नेता की राजनीति तो उनके ही बूते चल रही है, वे खुद राजनीति में आने लगे।

इस दौर में सामाजिक परिवर्तन की चेतना बढ़ी। सोशल क्लैश हुए, तो सामाजिक समूहों के अपने-अपने बाहुबलियों के बीच भी क्लैश हुए। कुछ लोमहर्षक घटनाएं बिहार और यूपी में हुई।

धमक की राजनीति ने जड़े जमा ली, और बाहुबली खुद विधायक सांसद चुने जाने लगे। बूथा कैप्चर, सलेक्टिव बूथो के लिए ईजाद टेक्नीक बनी।
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10 साल बाद यह बदलने वाला था।

चुनाव आयोग, लोग समझते थे कि, कि मतपत्र छपवाना, कर्मचारी लगाना, गणना कराने वाला कोई निगम है। आयोग भी वैसा ही बिहेव करता था।

चुनाव मतपत्र से होता था। कर्मचारी, राज्य सरकार देती। पुलिस, गाड़ी वाहन राज्य सरकार देती। राज्य से जितना मिलता, आयोग उसी में काम करता।

फिर आये तिरूनेल्लई नारायण अय्यर शेषन। आम अफसर न थे। धीमी शुरुआत के बाद इन्होंने ताबड़तोड़ सुधार लागू किये।
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चुनाव आयोग एक संवेधानिक, ऑल पॉवरफुल बॉडी है। उसे हाथ जोड़कर,केंद्र और राज्य से कृपा मांगने की जरूरत नही थी। बल्कि वह तो सरकार ही हाईजैक कर लेती।

याने, अचार संहिता लगते ही, चुनाव आयोग प्रशासन हथिया लेता। जिलों के अफसर उलट पलट देता। ईमानदार डीएम-एसपी लगा दिये जाते। वे किसी नेता की सुनते ही न थे।

नियमो का कड़ाई से पालन होता। मतदान दलों के साथ पुलिस भेजना, स्थानीय कर्मचारियों को उसके चुनाव क्षेत्र से बाहर ड्यूटी देना उसके हाथ मे था। इससे बाहुबलियों को प्रशासन से मिला संरक्षण खत्म हो जाता।

फर्जी वोटिंग रोकने के लिए, इलेक्शन कमीशन ने वोटर आई कार्ड देना शुरू किया। इसमे फोटो लगा हुआ होता। वोट देते समय वह नम्बर दर्ज किया जाता। वोटर रोल का नियमित पुनरीक्षण किया जाता। मरे, खपे, माइग्रेट किये लोग हटा दिए जाते।

इसके पहले एक सिपाही, एक कोटवार ही मतदान की सुरक्षा करते। शेषन ने भारी मात्रा में केंद्रीय सुरक्षा बल भेजने शुरू किए। पूरे देश मे एक साथ चुनाव कराने के लिए उतनी सेना न थी। तो चरणों मे चुनाव होने लगे।

चुनाव 2 दिन नही, महीने डेढ़ महीने का काम हो गया।
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बूथ कैप्चरिंग का स्वर्णिम दौर, 1986-87 से 1993-94 तक रहा। जब ये सुधार नही थे।

दो गाडियों में भरकर आये दस बीस बंदूकधारी, बूथ पर कब्जा कर लेते। हवाई फायर कर, वोटरों को भगा देते। अब बचे मतदान दल के 3-4 कांपते हुए कर्मचारी, एक लाठी वाला सिपाही और कोटवार, वे चुपचाप किनारे सरक जाते।

कब्जा करने वाले बाहुबली की टीम, आराम से बैठकर, मतपत्र उठाती, ठप्पा लगाती, प्रेम से मोडती, डब्बे में डालती। एक दो घण्टे में ऑपरेशन खत्म।

तब न मोबाइल था, न मीडिया, न सुनवाई। अफसर, सरकार सबई अपनी थी। बात दब जाती।

लेकिन सच को रास्ता मिल जाता है। वीडियो कैमरे आ चुके थे, और नलनी सिंह जैसी कोई जांबाज पत्रकार इसका विडियोबाजी कर न्यूजट्रैक पर चला देती। सनसनी बनती।

ऐसी जगह पुनर्मतदान होता। भारी मात्रा में सेना बल लगाकर, देश में बूथ कैप्चरिंग को इतिहास के पन्नो में दफन कर दिया।

लेकिन श्रेय ले गयी, ईवीएम।
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ईवीएम का ट्रायल, होने लगा 1984 के आसपास ही। लेकिन शेषन ने इसके इस्तेमाल को बढ़ावा देना शुरू किया। लेकिन उनके दौर में दक्षिण भारत के कुछ विधानसभा चुनावों में इस्तेमाल हुआ।

मशीन का इस्तेमाल पूर्ण रूपेण होना शुरू हुआ, 1996 के बाद, उनके अगले चुनाव आयुक्त के समय।

तब चुनाव आयुक्त थे- एम एस गिल।

उन्होंने शेषन की परम्पराओ को मजबूती दी। मशीन ने इलेक्शन रिजल्ट क्विक कर दिए। वोट इनवैलिड होना बंद हो गया, क्योकि स्याही-ठप्पे गलत लगने, या गीला ही मोड़ देने के कारण यदि दाग किसी दूसरी जगह भी लगा है, तो उसे खारिज कर दिया जाता।

मशीन में इसकी संभावना नही थी।
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आप जान गए कि बूथ कैप्चर शुरू कैसे हुआ, रुका कैसे। जो कहते है कि मशीन ने बूथ कैप्चर रोक दिया, मूर्ख, अज्ञानी और व्हाट्सप वीर हैं।

आज भी सेंट्रल फोर्स हटा दीजिए, अधिकारियों को बेलगाम छोड़ दीजिए। मतदान दल को अरक्षित छोड़ दीजिए। बाहुबली बूथ को मजे से कैप्चर करके दिखा देंगे।

बटन दबा देंगे, ठप्पा लगा देंगे। क्येाकि मशीन, बूथ कैप्चर करने वालो को गोली नही मारती, सिक्योरिटी फोर्स मारती है।
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लेकिन सच तो यह भी मोबाइल कैमरे, और सोशल मीडिया के दौर में बूथ कैप्चर छुपना असम्भव है। उस जगह पुनर्मतदान करवाना पड़ जायेगा, जो नेचुरली ज्यादा सिक्योरिटी में होगा।

इसके बनिस्पत, मशीन के भीतर, अगर डेटा फेरबदल हो रहा है, आप देख नही पाएंगे। उससे धाँय धाँय की आवाज भी नही आएगी।
और हाथी, नाक के नीचे से निकल जायेगा।

जो इस बार 400 पार तक निकलने की तैयारी करके बैठा है।

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