Powered By Blogger

शनिवार, 7 नवंबर 2020

"विकास की आड़ में असंतुलित होता पर्यावरण" को आप कैसे समझाएंगे?


मानव शरीर पंचतत्व से निर्मित है- पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, तथा वायु। यही तत्व मिलकर प्रकृति एवं पर्यावरण का निर्माण करते हैं। मनुष्य के स्वस्थ एवं दीर्घायु रहने के लिए इन तत्वों में संतुलन होना आवश्यक है। दुर्भाग्य से हमारी भागीदारी प्रवृत्ति ने इस प्राकृतिक सन्तुलन को अस्थिर कर दिया है। संसाधनों का दोहन करते समय हम पूँजी-लाभ में इतना उलझे कि जीवन-चक्र ही असंतुलित हो गया।

विश्व में प्रकृति एक विशिष्ट आवरण एवं आकृति है, जो प्राकृतिक सुन्दरता, विभिन्नता एवं विषमता के रूप में यत्र-तत्र सर्वत्र विद्यमान है। हम अपने चारों तरफ के विहंगम एवं विभिन्नता से परिपूर्ण दृश्यों को प्राकृतिक सौन्दर्य कहते हैं, जो ब्रह्म स्वरूप है, स्वतः व्याप्त हैं। इसमें कृत्रिमता का समावेश नहीं है। भू-मंडल में फैले मैदान, पठार, रेगिस्तान, चट्टान, हिमाच्छादित पर्वत, नदी-नाले, झील और जंगल आदि सभी प्रकृति का फैला हुआ साम्राज्य है। प्रकृति ने मानव को जीवन की आवश्यकतानुसार अथाह प्राकृतिक संसाधन दिए हैं और उनका दोहन कर उपभोग करने का अधिकार भी। चूंकि मनुष्य बुद्धिजीवी है, इसलिए एक बुद्धिजीवी प्राणी होने के कारण उसका यह अधिकार है कि वह प्रकृति के असीमित भंडार का दोहन एवं उपभोग करे। इसके साथ ही उसका यह कर्तव्य है कि वह दोहन किए संसाधनों की भरपाई के लिए निरन्तर प्रयास करता रहे, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। संसाधनों का दोहन तो खूब हुआ, किन्तु उनकी भरपाई नहीं की गई। मानवाधिकारों का ढोल पीटने वाले विकसित देशों ने इसकी आड़ में सबसे ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों की लूट की। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली और दूसरी दुनिया के देशों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि उन्हें अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करना मुश्किल हो गया। इसके लिए इन देशों ने तीसरी दुनिया के देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर नजरें गड़ाईं। इन देशों में घुसने के लिए विकसित देशों ने मानवाधिकार का झुनझुना बजाया। गरीब देशों में मानवाधिकार के नाम पर गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) खोले और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन प्रारम्भ कर दिया। खाड़ी देशों में तेल और अफ्रीका में खनिजों का मानवाधिकार की आड़ में दोहन किया गया। भारत की वन सम्पदा को सबसे ज्यादा नुकसान भोगवादी मुनाफिकों ने पहुँचाया। एनजीओ की आड़ में कन्वर्जन भी जमकर हुआ। उद्योगों के द्वारा सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश खुद अपने प्रदूषण पर लगाम लगाने के स्थान पर गरीब देशों को प्रताड़ित करते रहते हैं। एक तरफ विकसित देश गरीब देशों की सम्पदा लूटते रहे, वहीं दूसरी तरफ पर्यावरण दिवस मनाकर कर्तव्यों की खानापूर्ति करते रहे।

पर्यावरण संतुलन

गाय, गंगा और गाँव भारत की संस्कृति का आधार रहे हैं। हमने जैसे-जैसे विकास के नाम पर इन तीनों को दरकिनार करना शुरू किया, हमारा पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ गया। हर चीज में मुनाफा देखने वाली पाश्चात्य संस्कृति ने मुनाफे के खेल में भारतीय संस्कृति पर सीधा हमला किया। उसने हर उस चीज को निशाना बनाया जिसके द्वारा उनके मुनाफे को नुकसान हो सकता था। गाय भी उसी का शिकार हुई। गाय का पर्यावरण सन्तुलन में बड़ा योगदान है। गाय के पूजनीय पशु होने के पीछे कई वैज्ञानिक कारण निहित हैं। गाय को देवी मानने वाले देश का गोमांस निर्यात में पहले स्थान पर होना पर्यावरण असंतुलन का प्रथम आधार बना। इसको ऐसे समझा जा सकता है। गाय के गोबर एवं गोमूत्र में असंख्यक जीवाणु होते हैं। गोमूत्र एवं गोबर आधारित खेती में जल की आवश्यकता बहुत कम होती है। भारत के परिवेश में सिर्फ वर्षा जल ही खेती के लिए पर्याप्त होता रहा है। आज रसायनों के इस्तेमाल से भू-जल समाप्ति की ओर है। जमीन के अन्दर तीन परतों में पानी पाया जाता है। प्रथम और द्वितीय परतों का पानी हम खत्म कर चुके हैं। इस समय हम तीसरी परत का पानी पी रहे हैं। इसको ऐसे समझा जा सकता है। आज से 30 साल पहले 10 से 20 फिट पर पानी मिल जाता था। तब हम पहली परत का पानी पीते थे, उसके बाद 60-80 फिट पर पानी मिलने लगा। वह दूसरी परत का पानी था। वर्तमान में 100 फिट से नीचे जाकर पानी के लिए बोरिंग करते हैं। यह तीसरी परत का पानी है। यह अन्तिम परत है जिसके 2030 के बाद खत्म होने की सम्भावना है। भारत के नौ राज्यों में भूजल का स्तर खत्म होने के खतरनाक स्तर पर है। उपलब्ध जल का 90 प्रतिशत इस्तेमाल हो चुका है। सरकारी आंकड़ों को देखें तो 1947 में भारत के प्रति व्यक्ति के पास जल उपलब्धता 6,042 घन मीटर थी। 2011 में यह घटकर 1,545 घन मीटर रह गई है। भारत में सिंचाई में 80 प्रतिशत हिस्सा नदी, नहरों और भूजल से पूरा होता है। बाकी 20 प्रतिशत में वर्षा जल, तालाब जल एवं अन्य उपलब्ध संसाधन हैं।

चैपट पर्यावरणीय संतुलन

भारत में जब हरित क्रान्ति की शुरुआत हुई थी, उस समय रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग के द्वारा उत्पादन बढ़ाना समय की माँग थी। कुछ समय के बाद इस बात का आभास होने लगा कि जिन रसायनों को हम लाभकारी मान रहे हैं, वह भूमिगत जल का अनावश्यक दोहन कर रहे हैं और सामान्य से 10 गुने से ज्यादा पानी का प्रयोग करा रहे हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे हम जब एलोपैथी की दवाई खाते हैं तो प्यास ज्यादा लगती है। इसके साथ ही ये रसायन जमीन की उर्वरा शक्ति को भी नष्ट कर रहे हैं। जबसे कृषि का मशीनीकरण प्रारम्भ हुआ तबसे बैलों से खेत जोतने के स्थान पर ट्रैक्टर से खेतों की जुताई प्रारम्भ हो गई। लोगों ने बैल रखने बन्द कर दिए। बैल कम होने का प्रभाव गायों के पालन पर पड़ा। गोवंश आधारित खेती से ध्यान हटने के कारण इन पशुओं का कटना बढ़ गया। मांसाहार की प्रवृत्ति बढ़ी। विचारों में आक्रामकता बढ़ी। झगड़े-फसाद बढ़े। यानी कि सम्पूर्ण पर्यावरणीय चक्र दूषित हो गया। जो गाय, गंगा और गाँव भारतीय सभ्यता का आधार रहे थे, वह चैपट हो गया। इस चैपट व्यवस्था का केन्द्र-बिन्दु जलचक्र प्रभावित होता चला गया।

शहरीकरण से घटा जल स्तर

जैसे-जैसे देश में कारपोरेट संस्कृति का बढ़ना शुरू हुआ, वैसे-वैसे शहरीकरण प्रारम्भ हुआ। एक ओर रसायनों ने जल स्तर नीचे किया तो अनियंत्रित औद्योगीकरण ने ग्लोबल वार्मिंग कर दी। वर्षा चक्र अनियमित हो गया। हमने प्राकृतिक खेती को छोड़ा। प्रकृति ने हमारा साथ छोड़ दिया। जल स्त्रोतों के कम होते रहने के कारण गरीब किसान शहरों की तरफ रोजगार की तलाश में पलायन कर गए। ग्रामीण जनसंख्या का पलायन शहरों की तरफ हुआ। इसके द्वारा धीरे-धीरे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों का संतुलन चरमराने लगा। पिछले सात दशक में ग्रामीण शहरों की तरफ आकर्षित हुए। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन के द्वारा यह औसत अब लगभग दोगुना होने के कगार पर है। पिछले 70 साल के जनसंख्या औसत की तुलना करें तो 1951 में शहरों में रहने वाली जनसंख्या 17.3 प्रतिशत थी। 2011 में यह सत 31.16 प्रतिशत तक पहुँच गया। अमेरीका एवं पश्चिम यूरोप के देशों में शहरी जनसंख्या अब गाँव का रुख कर रही है, वहीं भारत में इसका उलटा हो रहा है। ग्लोबल मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फर्म की रपट के अनुसार 2015 से 2025 के बीच के दशक में विकसित देशों के 18 प्रतिशत बड़े शहरों में आबादी प्रतिशत 0.5 प्रतिशथ की दर से कम होने जा रही है। पूरी दुनिया में 8 प्रतिशत शहरों में प्रतिवर्ष 1.15 प्रतिशत शहरी जनसंख्या कम होने का रुझान होना सम्भावित है।

शहरी क्षेत्रों में बढ़ी आबादी एवं उद्योगों के कारण भारी मात्रा में जल प्रदूषित हुआ। जो जल शेष रहा वह भारी जनसंख्या बोझ के कारण अपर्याप्त रहा। अमीरी और गरीबी की खाई बढ़ती चली गई। 1990 में असमानता का इंडेक्स 45.18 था जो 2013 आते-आते बढ़कर 51.36 हो गया। सामाजिक विद्रूपता में हमने कृषि भूमि को विकास के नाम पर पहले अधिग्रहीत किया, फिर उस पर बड़ी-बड़ी इमारतें बनाकर उसे विकास का नाम दिया। रियल इस्टेट को औद्योगिक विकास का माध्यम एवं उद्योगों का पर्याय बना दिया गया। इसमें हमने बड़े-बड़े बोरिंग से पानी निकालकर जमीन को खाली करना शुरू कर दिया। योजनाओं को संस्थागत रूप देने के लिए औद्योगिक विकास प्राधिकरण गठित किए गए। रसायनों के इस्तेमाल एवं विकास के नाम पर हम भूमिगत जल का लगातार दोहन करते रहे। हमने जितने जल का दोहन किया, उतना जल भूमि में वापस नहीं पहुँचाया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पर्यावरण असंतुलित होता चला गया। जल स्तर नीचा होने से घरेलू और कारपोरेट के जल की आपूर्ति तो निर्बाध हुई। जंगल और जानवरों के लिए जल की किल्लत ने पर्यावरण प्रभावित कर दिया।

प्रकृति संरक्षण का समाधान

इस समस्या के समाधान के क्रम में कुछ छोटी-छोटी बातें महत्त्वपूर्ण हैं। हम रसायनों के इस्तेमाल की धीरे-धीरे कम करते हुए परंपरागत कृषि की तरफ बढ़ें। इसके द्वारा जल का दोहन कम होगा। भूमि में वापस जल स्रोतों को भरने के लिए तालाबों को प्रोत्साहित करें। शहरी और ग्रामीण इलाकों में जिन तालाबों पर लोगों ने अतिक्रमण कर लिया है, उन्हें खाली कराकर उनमें वर्षा जल संचय सुनिश्चित किया जाए। वर्षा जल को तालाबों में संरक्षित करके उसका न सिर्फ कृषि में उपयोग करें, बल्कि इसके द्वारा भूमि में वापस जल भंडारण को सुनिश्चित करें। अधिक-से-अधिक पौधारोपण करें। तुलसी, पीपल, नीम जैसे वृक्षों का ज्यादा-से-ज्यादा रोपण करें। यह अन्य पेड़ों की तुलना में ज्यादा औषधीय गुण रखते हैं और पर्यावरण में ऑक्सीजन की मात्रा नियंत्रित करते हैं। जैसे लोग कर्तव्य परायण होते हैं, वैसे ही हमें स्वयं को प्रकृति-परायण बनाने पर विचार केन्द्रित करना चाहिए। जैसे-जैसे हम उत्पत्ति के स्रोत को स्वीकृति एवं सम्मान देते हैं। भावनाएँ एवं ब्रह्माण्ड की शक्तियाँ आशीर्वाद के रूप में प्राकृतिक सम्पदाओं से हमें फलीभूत करने लगती हैं। यह एक प्रकार का प्राकृतिक चक्र है जो यदि नियंत्रित है तो सर्वत्र खुशहाली है और अगर एक बार यह अनियंत्रित हो गया तो इसके भयावह परिणाम की कल्पना करना आसान नहीं है। क्योंकि, प्रकृति अपने साथ हुई क्रूरता का बदला क्रूरतम तरीके से लेती है। क्रंकीट के जंगलों में विचरण करते-करते हममें से कुछ लोगों की भावनाएँ भी कंक्रीट जैसी हो गई हैं। किन्तु आज भी कुछ ऐसे लोग समाज में मौजूद हैं जिनके सत्कर्म के कारण प्राकृतिक संतुलन बरकरार है।

बीज मंत्र का करें इस्तेमाल

मनुष्य स्वभाव सदैव सौन्दर्य की ओर आकर्षित होता रहा है। हर नैसर्गिक सौन्दर्य के निर्माण में कुछ समय लगता है। जिस सुन्दरता को हम अभी देख रहे हैं, उसके निर्माण में भी बरसों का समय लगा है। जो हम नष्ट कर रहे हैं, उसकी भरपाई भी बरसों में ही सम्भव है। यदि आज से हम प्रकृति परायण बनेंगे, तब आने वाली पीढ़ियों के लिए मनभावन नैसर्गिक सुन्दरता का अस्तित्व रह पाएगा। जो हम पाना चाहते हैं, उसके बीज बोने का आरम्भ आज से ही प्रारम्भ करना होगा। आज हम जिन पेड़ों के फल खा रहे हैं, क्या हमने इन्हें लगाया था ? ये पेड़ हमारे पुरखों द्वारा रोपे गए। उनके द्वारा ही अभिसिंचित किए गए। हम तो उनके प्रयास को प्रसाद के रूप में पा रहे हैं। अब यह हमारा कर्तव्य है कि अपने आने वाले वंश के लिए वन-वनस्पतियों एवं जड़ी-बूटियों को बोना चाहिए। ये पेड़-पौधे ही जड़ी-बूटियाँ हैं। रोग-निवारण का स्तम्भ हैं। प्राकृतिक संसाधनों को भी समय≤ पर नवसृजन की आवश्यकता होती है, अन्यथा दोहन के द्वारा शनैः-शनै बड़े भंडार भी समाप्त हो जाते हैं। मैंने कहीं पढ़ा था कि हमारे पास संसाधनों के संरक्षण का बीज मंत्र है। इस मंत्र को समझने की आवश्यकता है। धन तथा संसाधनों को हम अर्जित करते हैं। वह स्वोपार्जित होता है।

पूर्वजों के द्वारा पूर्व संचित धन-संसाधन भी हमें उत्तराधिकार में मिलते हैं। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में आज हम स्वोपार्जित से विमुख हुए हैं। हम संसाधनों को उत्तराधिकार में अधिकता से पा रहे हैं, किन्तु हम इनका मूल्य नहीं समझ पा रहे हैं। तभी तो अपने कर्तव्य से विमुख है और संसाधनों की बर्बादी कर रहे हैं। यदि हम पेड़ों को काटते रहे, वनों का विनाश करते रहे, और नए पौधे नहीं रोपे तो एक ऐसी रिक्तता आ जाएगी जिसकी भरपाई बहुत मुश्किल होगी। इसलिए जरूरी है कि हम संसाधनों का समय≤ पर मूल्यांकन और अंकेक्षण करते रहें। हमारी जीवन शैली दो चक्रों पर आधारित है। एक चक्र है परम्परा, जिसमें आस्था-विश्वास रहता है। दूसरा चक्र है वैज्ञानिक सोच, जिसमें विकास रहता है। शायद हम विकास एवं विनाश की सही विभाजक रेखा का निर्धारण नहीं कर पा रहे और यही वर्तमान समस्या का कारण है। हमें इन सभी दर्शनों में सामंजस्य बिठाना है। बौद्धिकता तथा नैतिकता से तालमेल साधना है। जैसे जीवन में स्पर्श का बड़ा महत्व है। माँ का स्पर्श बच्चे का दर्द खत्म कर देता है। कष्टों को हरने में सहायक होता है। हमें अपने आने वाले वंश के लिए प्रकृति माँ को संरक्षित करना चाहिए। अगर बच्चा बिगड़ जाए तो भी माँ समय समय पर कुछ नसीहत देकर सचेत अवश्य करती है। प्रकृति का स्पर्श मानवता को संतुलित रखता है। मनुष्यों के कार्यों से प्रकृति माँ नाराज तो अवश्य है किन्तु माँ तो आखिर माँ है। मान ही जाएगी। हमें सिर्फ एक कोशिश ही तो करनी है।

यह जवाब waterportel

विकास की आड़ में असंतुलित होता पर्यावरण

वेबसाइट से लिया कॉपी लिया गया है।।।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें