भारत की आजादी के बाद से ही पिछले 70 वर्षों से करीब-करीब सभी सरकारों ने गांव के विकास पर जोर दिया है और गांव के विकास के लिए बहुत से फंड भी आवंटित किए गए हैं। परंतु आज भी शहरी क्षेत्रों के मुकाबले में गांव में विकास अत्यंत धीमी गति से और बहुत ही कम मात्रा में हुआ है। जिसकी वजह से आज भी गांव के लोग रोजगार हेतु, स्वास्थ्य लाभ हेतु, शिक्षा के लिए, तथा अन्य जरूरतों के लिए शहरों का रुख करते रहते हैं।
सवाल यह उठता है कि गांव में सरकारों द्वारा इतना पर्याप्त धन उपलब्ध कराने के बावजूद भी वहां पर उच्च स्तर का विकास क्यों नहीं हो पाया?
मैं भी मूलतः एक गांव का ही निवासी हूं। भले ही आज मैं नौकरी के लिए शहर में निवास करता हूं। मुझे शहर और गांव दोनों का अनुभव है। आज तक में जो गांव के विकास और गाँव की कार्यप्रणाली के सिस्टम को समझ पाया हूं। उसके अनुसार मुझे लगता है कि सरकारों की इच्छाशक्ति में कमी नहीं रही है। इसके लिए काफी हद तक गांव की जनता ही जिम्मेदार है जो विकास कार्यों को लेकर वहां के स्थानीय जिम्मेदार अधिकारियों तथा ग्राम प्रधानों से सवाल नहीं पूछती है। सभी को यही लगता है कि मैं क्यों इस पचड़े में पड़ने जाऊं। मुझे क्या। अगर गांव की सड़क खराब है तो केवल मैं अकेले ही थोड़े ना परेशान हो रहा हूं। गांव के सभी लोग परेशान हो रहे हैं, तो जब कोई नहीं बोलता है तो मैं ही क्यों बोलूं। अगर गांव की नालियां जाम है तो मैं ही क्यों बोलूं। यदि गांव में प्राथमिक चिकित्सा केंद्र पर कोई एएनएम या डॉक्टर नहीं आ रहा है तो मैं ही क्यों आवाज उठाऊं। वे धीरे से शहर की ओर बढ़ जाते हैं और अपना समाधान करके गांव में वापस लौट आते हैं। यदि गांव के प्राइमरी विद्यालय में शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं अथवा छात्रों को ठीक से नहीं पढ़ाते हैं तो हर गांव वाला यही सोच कर चुप हो जाता है कि मैं ही बोल कर विरोध क्यों बोलूं। मुझसे क्या मतलब। वह अपने बच्चे को प्राइमरी विद्यालय से निकालकर किसी प्राइवेट विद्यालय में नर्सरी विद्यालय में डाल देता है और शांति से गांव में रहता है।
जी हां, सवाल सिर्फ शांति का है। क्योंकि यदि गांव में कोई ग्राम वाला ग्राम प्रधान के विरुद्ध या बी.डी.यो. के विरुद्ध या वहां के स्थानीय प्रशासन के विरुद्ध आवाज उठाता है तो उसे गांव में प्रताड़ित किया जाता है, परेशान किया जाता है। उसे शांति से रहने नहीं दिया जाता और कई तरह से उसके परिवार को समस्याएं झेलनी पड़ जाती हैं। और इसमें प्रशासन के भ्रष्ट अधिकारी भी बराबर का भागीदार है। जिन अधिकारियों पर ग्राम प्रधान के द्वारा किए गए कार्यों की गुणवत्ता की जांच का जिम्मा है वह भी ग्राम प्रधानों से कुछ पैसों के लालच में आ जाते हैं। ग्राम प्रधान स्तर से लेकर के वीडियो और कभी-कभी तो जिला स्तर के अधिकारी भी मिलीभगत में रहते हैं और जनता के धन का दोहन करते हैं। यदि गांव के किसी सड़क निर्माण के लिए 10 लाख रुपए पास होते हैं तो उसमें से महज ढाई या 3 लाख वास्तविक सड़क पर खर्च किए जाते हैं, जिसमें नाममात्र के गिट्टी डाली जाती है और नाम मात्र के अलकतरा डाले जाते हैं। और वह सड़क 1 साल के भीतर ही उखड़ने लगती है, बाकी पैसे ग्राम प्रधान और जिम्मेदार अधिकारियों के बीच में बांट दिए जाते हैं। और फिर उसके मरम्मत के नाम पर दोबारा आवंटित किए जाते हैं। और इसी तरह यह खेल हमेशा चलता रहता है। बहुत से काम तो वास्तविक धरातल पर होते ही नहीं, सिर्फ कागजों पर ही दिखा कर पैसे गटक लिए जाते हैं। पैसे कहां चले जाते हैं इस बात का अनुमान आप ऐसे लगा सकते हैं। सरपंच की सैलरी 3000 से लेकर 5000 तक होती है। समझ में नहीं आता है 2 साल बाद स्कॉर्पियो फॉर्च्यूनर कहाँ से ले आते हैं? 1 साल के भीतर ही उनके बंगले और मकान बनने लगते हैं। सभी जनप्रतिनिधियों से सम्बन्धित है यह कहानी।
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