टायलेट को बाथरूम कहने का भाव समझने के लिए हमे थोड़ा पीछे जाना चाहिए, उस समय में जब घर-घर में शौचालय नहीं पाए जाते थे और विशेष परिस्थितियों में यदि पाए भी जाते थे तो उनका निर्माण मुख्य भवन ने कुछ दूरी पर एक तरफ किया जाता था जो की अपवाद स्वरूप पाया जाता था।अपने निवास स्थान के मुख्य भवन में शौचालय का निर्माण और उसमे शौच के लिए जाना गर्हित व दोष का कारक माना जाता था। ऐसी स्थिति में लोगों को शौच के लिए खुले में जाना होता था और इस कारण स्त्री वर्ग को विशेष परेशानी उठानी पड़ती थी कारण ये कि उन्हें इसके लिए अंधेरा होने की प्रतीक्षा करनी होती थी। जहां तक सवाल दीर्घशंका का था वहां तक तो ठीक था,लेकिन ऐसी स्थिति में लघुशंका अनुभव होने पर स्त्री वर्ग द्वारा विकल्प के रूप में घर के आंगन का प्रयोग किया जाता था।
ये वो समय था जब ज्यादातर घर मिट्टी के हुआ करते थे और घरों में बड़े बड़े आंगन होते थे और आंगन के जिस हिस्से में हैंडपंप लगा होता था वहां थोड़ी सी जगह घेर दी जाती थी जिसकी आड़ में स्त्रियां स्नान किया करती थी।
घरों में विशेष रूप से स्नान करने के लिए कोई स्थान नहीं बनता था। आगे चलकर जब नगरीय व्यवस्था का प्रसार होने लगा और पक्के घरों का व्यापक स्तर पर निर्माण होने लगा तब धीरे धीरे बाथरूम बनने प्रारंभ हुए और इसका एक कारण जमीन का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होना और निर्माण सामग्री का मंहगा होना भी था,क्योंकि पुराने समय में जितनी जगह में एक आंगन का निर्माण होता था,आगे चल के उस से भी कम जगह में पूरे घर ही बनने लगे।
इस कारण घरों में अपेक्षाकृत एक तरफ एक छोटा था स्थान बाथरूम के नाम पर बनवा दिया जाता था। लेकिन शौचालय अब भी मुख्य भवन में नहीं निर्मित किए जाते थे। उनमें इतनी दूरी होती थी की वो मुख्य भवन से अलग लगे। ऐसी स्थिति में जिस काम के लिए आंगन के घेरे का उपयोग किया जाता था उसकी जगह बाथरूम का इस्तेमाल किया जाने लगा जो आगे चल कर रूढ़ हो गया और लघुशंका का अनुभव होने पर बाथरूम किधर है पूछा जाने लगा। वर्तमान समय में तो और भी प्रगति हो गई है,क्योंकि इन दिनों तो शयन कक्ष से अटैच्ड टॉयलेट बाथरूम बनाए जा रहे। खैर ये विभिन्न कारणों में से एक कारण हुआ। इसके अतिरिक्त अन्य बहुत से ऐसे कारण हैं,जिनके कारण जन सामान्य में ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है कि टॉयलेट को बाथरूम कह दिया जाता है।
भारतीय जनमानस में एक भाव व्याप्त है और वो भाव है, कि अंग्रेजी भाषा हिंदी भाषा से श्रेष्ठ है और अंग्रेजी भाषा बोलना हिंदी भाषा बोलने से अधिक सभ्य माना जाता है । कुछ लोग तो ऐसे भी दिखे जो अंग्रेजी बोलने में श्रेष्ठता का अनुभव करते है और हिंदी बोलने में उन्हें हीनता का बोध होता है।
हालांकि अंग्रेजी हिंदी से श्रेष्ठ व कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है भी,लेकिन इसलिए नहीं कि उसे अंग्रेज बोलते हैं और अंग्रेज बहुत गोरे होते हैं इतने गोरे की हिंदी बोलने वाले गोरे भारतीय उनके आगे खुद को काले महसूस करने लगते हैं,अब चूंकि चमड़ी का रंग तो ईश्वर की देन है जो मिल गई मिल गई, उसे नहीं बदल सकते, लेकिन भाषा तो बदली जा ही सकती है,सो बदल लेते हैं।
लेकिन क्या यही बात है अंग्रेजी के श्रेष्ठ होने के पीछे? कतई नहीं इसकी श्रेष्ठता इसके बोलने वालो की चमड़ी के रंग से नहीं है,बल्कि उनके पुरुषार्थ से है जिसके दम से वो नई नई व उपयोगी सामग्री की खोज कर अपनी अंग्रेजी भाषा को समृद्ध करते हैं, ताकि उसका लाभ उठाने के लिए पूरी दुनिया उनकी भाषा सीखने को बाध्य हो। इन दिनों, विज्ञान, तकनीक, चिकित्सा, संचार, शिक्षा, अंतरिक्ष विज्ञान आदि सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में यदि सबसे अधिक शोध कार्य या नवाचार हो रहे वो अंग्रेजी भाषा में ही हो रहे। ये कार्य हिंदी बोलने वाले भी करते तो दुनिया हिंदी भी सीखती,लेकिन जिससे ऐसा करने की उम्मीद की जाए अगर उसे ही इससे हीनता बोध का अनुभव हो,तब इस विषय में सोचना भी व्यर्थ है।
ये मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वो स्वयं को विशेष मानता है,और इसके लिए वो कोई कारण भी ढूंढ लेता है और अपने आस पास के लोगों से ऐसी आशा भी रखता है की उसके कारणभूत गुण का संज्ञान लेते हुए लोग उसे विशेष मानें भी। इस क्रम में वो बहुधा जो कारण ढूंढता है वो प्रायः निषेधात्मक होता है यानी वो कुछ करने को नहीं बल्कि कुछ न करने को अपनी विशेषता बनाता है क्योंकि कुछ न करना कुछ करने की अपेक्षा अधिक सरल होता है,क्योंकि कुछ न करने के लिए कुछ करना नहीं होता है। जैसे "मैं चाय नहीं पीता", "मैं लहसुन प्याज नहीं खाता", "मैं इलायची भी नहीं खाता", "मैं फिल्म नहीं देखता"। जो नहीं करना चाहिए वो मैं नहीं करता हूं,और जो करना चाहिए मैं वो भी नहीं करता हूं और इसलिए मैं विशेष हूं। लोगों को ये बात माननी भी चाहिए।
इस प्रवृत्ति की पराकाष्ठा तब देखी जब एक गांव में ही पैदा हुए, पले बढ़े, आदमी ने कुछ एक साल मुंबई में बिताने के बाद घर लौटने और मुझसे मुलाकात होने पर जब मुझसे ये कहा की उसे भोजपुरी बोलना भूल गया, मैने पूछा की क्यों क्या तुमने मराठी सीख ली इस कारण? तो बोला नहीं "मैं जिधर काम करता हैं न उधर जो बंबइया हिंदी बोली जाती है उसी की आदत लग गई है" ये सुनकर मैं अवाक हो कर ये सोचने लगा की ये कह क्या रहा कि यहां इसने 19 साल तक की जो उम्र गुजारी और उसमे जो कुछ भी सीखा और उसमे भी जो सबसे पहली चीज सीखी यानी उसकी पारिवारिक भाषा या बोली भोजपुरी वो बस 1 साल मुंबई में गुजारने के बाद इसे भूल गई? पैदाइश से लेकर 19 की उम्र तक गांव में गुजारे गए सालों पर वो मुंबई वाला 1साल भारी पड़ गया ऐसा कैसे हो सकता है?
उत्तर भारत के उन क्षेत्रों जिन्हे की हिंदी भाषी क्षेत्र माना जाता है, के लोगों में ये लक्षण बड़ी आसानी से देखा जा सकता है। और इसके बीज इतिहास में ही पड़े हुए हैं अंग्रेज लोगो ने हमारे अंदर अपनी भाषा संस्कृति के प्रति जो हीनता बोध का अनुभव करवाया वो आज भी वैसा का वैसा बना हुआ है। जिनका अंग्रेजी बोलना असंभव है वो भोजपुरी को दरकिनार करते हुए उसे बोलना भूल जाते हैं और भद्दी हिंदी बोलते हुए स्वयं को प्रगतिशील मान लेते हैं,जैसे -
"क्या भया है?" "मेरे गोड़ में घाव लग गया है" " मेरा कपार पिरा रहा है" "गेना इधर बीगो" "बार झार के स्कूल आया करो"।
जो थोड़ी बहुत अंग्रेजी समझते हैं लेकिन बोलने की कुव्वत नहीं रखते वो हिंदी भूलने लगते हैं और जितना हो सके उतना हिंदी में अंग्रेजी के शब्द मिला के बोलते हुए स्वयं को प्रगतिशील मान लेते हैं, जैसे -
अरे यार मेरी बात का बिलीव नहीं मानोगे।
एक्चुअली मैं स्टेशन में रीच कर रहा था की उनका फोन अराइव हुआ।
मैं मार्केट गया चिकेन लाया और जिंजर गार्लिक पेस्ट में फेट कर हाफ ओ क्लाक के लिए मैगनेट(मेरिनेट) होने को रख दिया।
एक और श्रेणी है जो अंग्रेजी बोल लेती है, लेकिन अप्रासंगिक और अव्यवहारिक तरीके से वहां भी अंग्रेजी बोलने लगती है जहां पर ऐसी आवश्यकता भी नहीं होती जैसे - यहां कोरा पर भी ऐसे लोग बहुत मिले, जिनमें कॉमन सेंस का इतना अभाव होता है की वो ये भूल जाते हैं कि हम जहां पर अपनी बात अंग्रेजी में कह रहे वो सार्वजनिक व सामाजिक मंच विशेष रूप से हिंदी भाषा को समर्पित है। कभी कभी तो हिंदी में हो रही बातचीत के बीच में ही व्यक्ति अचानक से अंग्रेजी बोलने पर उतर आता है, मानो थोड़ी देर पहले उस व्यक्ति के अंदर रहने वाली जयशंकर प्रसाद की आत्मा को जबरदस्ती बाहर निकाल विलियम वर्ड्सवर्थ की आत्मा घुस गई हो।
उदाहरण स्वरूप एक दिन ऐसे ही किसी प्रसंग में एक प्रगतिशील महिला को जिनसे मेरी हिंदी में बात हो रही थी,अचानक से अंग्रेजी का दौरा आ गया और वो थोड़ी देर पहले बोली जा रही हिंदी की जगह अंग्रेजी बोलने लगीं ऐसा इसलिए की हिंदी में हो रही बातों में मेरी बातें उन पर भारी पड़ रही थी तो उन्होंने मुझे अंग्रेजी बोल कर दबाना चाहा। उन्हें ऐसा करते देख मुझे अनुभव हुआ की शायद ये हिंदी की जगह अंग्रेजी बोलकर मेरी बोलती बंद करना चाहती हैं, क्योंकि इन्हें मेरा हिंदी में बात करना ऐसा लग रहा मानों मैं अंग्रेजी जानता ही नहीं। फिर बाध्य होकर मुझे उनका ये भ्रम दूर करना पड़ा।
इससे भी बड़े आश्चर्य की बात ये है की ऐसे अंग्रेजी के विद्वान कोरा के अंग्रेजी संस्करण में किसी प्रश्न को पूछना या किसी प्रश्न का उत्तर देना तो दूर अपनी प्रोफाइल तक पूरी नहीं किए होते हैं, लेकिन कोरा के हिंदी संस्करण में इनकी ये प्रवृत्ति अप्रासंगिक माध्यम से प्रकट हो जाती है, जहां पर उसका कोई औचित्य नहीं होता।
भाषा के प्रति ऐसे हीनताबोध का एक और उदाहरण साझा करना चाहूंगा। कुछ साल हुई मेरे पड़ोस में एक परिवार रहता था। जिसमे दो बच्चे थे और वो अंग्रेजी माध्यम के एक विद्यालय में पढ़ रहे थे। चूंकि उनके दादा दादी इतने पढ़े लिखे नहीं थे कि उन्हें पढ़ा लिखा कहा जा सके, इसलिए अपने बच्चो की शिक्षा दीक्षा में वो कोई कमी नहीं होने देना चाहते थे। परिवार के सभी सदस्यों का बच्चो की पढ़ाई लिखाई के प्रति विशेष आग्रह था। घर में एक अघोषित नियम था जिसका कड़ाई से पालन होता था और वो नियम ये था की परिवार का कोई भी व्यक्ति बच्चो से भोजपुरी में बात नहीं करता था, लेकिन आपस में पूरे परिवार के सदस्य भोजपुरी में ही बात करते थे। और ये बच्चों के स्वविवेक पर छोड़ दिया गया था कि वो परिवार के अन्य सदस्यों के बीच भोजपुरी में हो रही बातचीत पर कोई ध्यान न दें। अब इसका परिणाम ये हुआ की उन दोनों बच्चो में जिस भाषा का विकास हुआ उसे न तो खड़ी बोली हिंदी ही कहा जा सकता था नहीं भोजपुरी ही।
ऐसे तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक पाए जाने वाले भारतीय लोगों का अंग्रेजी के प्रति विशेष रुझान देखा जा सकता है, लेकिन इसके साथ ही साथ ये भी देखा जाता है की बहुत से भारतीय राज्यों की अपनी अपनी भाषाएं हैं, और वहां एक बड़ा वर्ग अंग्रेजी बोलना भी जानता है और उत्तर भारतीय लोगों से कहीं बेहतर, लेकिन यदि उन्हें स्वभाषाभाषी से बात करनी होती है तो वो अपनी मातृभाषा में ही बात करने को तरजीह देता है, और अंग्रेजी का प्रयोग उन्ही लोगो के साथ करता है जो उसकी अपनी भाषा में बात नहीं कर सकता।
इनमे और हिंदी भाषियों में जो मूल अंतर है वो इस बात का है की हिंदी बोलने वाले को अपनी मातृभाषा बोलने में शर्म आती है। दो भोजपुरी बोल सकने वाले, शुद्ध भोजपुरी बोलने से बेहतर अशुद्ध खड़ी बोली हिंदी बोलने को मानते हैं, दो शुद्ध हिंदी बोल सकने वाले, हिंदी में जितना बन पड़े उतनी अंग्रेजी मिला कर बोलते हैं, ताकि सुनने वालों को लगे की ये भारतीय मूल के विदेशी हैं और पैदाइश से लंदन में रहे हैं, चूंकि परिवार भारतीय है इसलिए ऐसे परिवार से होने के कारण अंग्रेजी की बैसाखी लेकर टूटी फूटी और लंगड़ाती हुई हिंदी बोल लेते हैं। जो अंग्रेजी बोल लेते हैं वो तो कुत्ते बिल्लियों से भी उसी में बात करते है, और अगर एक विशेष प्रकार का तरल यदि उन्हें मिल गया तो वो जहां होते हैं वहीं पर लंदन, 10 डाउनिंग स्ट्रीट, और बकिंघम पैलेस भी उतार देंते हैं।
हिंदी में अंग्रेजी मिला कर बोलने की आदत सबसे ज्यादा महिलाओं और लड़कियों में दिखती है, जैसे पति को हसबैंड या हबी बोलना, फियांस, एक्चुअली, डिफेनेटिली, डॉगी, कॉउ, शिट, आउच, ऑफकोर्स, बुलशिट इत्यादि। एक फौज और खड़ी हो रही जो अभी 10-12 में पढ़ रही, अंग्रेजी भले न आए, लेकिन उसके कोटेशन कॉपी कर के फेसबुक पर पेस्ट कर दे रही और जो लिखा है उसकी मीनिंग पूछ दी जाए तो ये सन्नाटे में आ जाते हैं।
कुछ लोग तो बिलकुल क्लाइमैक्स पर पहुंच चुके हैं, जिन्हे टट्टी लगी है कहने में शर्म आती है, और वो कहते है लैट्रीन लगी है, पेशाब लगने पर कहते हैं बाथरूम लगी है। और इन दिनों कुछ तो ऐसे दिख रहे जिन्हे मां, पिता,और बहन या फिर बीबी कहने में भी शर्म आती है और इनकी जगह वो मदर, फादर और सिस्टर और वाइफ कह रहे।
अपनी स्वयं की मातृभाषा के प्रति उत्तर भारतीय लोगों में जो हीनता बोध देखने को मिलता है, वैसा अन्यत्र पाया जाना दुर्लभ है।और ये विशेषता विशेष रूप से हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों में ही दिखती भी है,नहीं तो मैंने दो बांग्ला लोगों को कभी उनकी अपनी मातृभाषा बांग्ला को छोड़ हिंदी अथवा अंग्रेजी में बात करते नहीं देखा, नहीं कभी दो पंजाबियों को ही अपनी मातृभाषा को छोड़ किसी अन्य भाषा में बात करते देखा हां, हिंदी भाषी लोगों को अंग्रेजी में बात करते अवश्य देखा।
यहां अंग्रेजी बोलना श्रेष्ठ होना हुआ और हिंदी बोलना पिछड़े होने का प्रतीक, इस भाव का जन्म कब, कैसे और कहां हुआ मैं ये नहीं कह सकता लेकिन इस भाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है हिंदुस्तान में रहने वाला एक हिंदीभाषी हिंदुस्तानी अगर कभी कस्टमर सर्विस में काल करे तो जब भाषा चयन के विकल्प दिए जाते हैं तो वहां भी हिंदी का विकल्प दूसरे नंबर पर आता है और हमे जो मशीन की आवाज सुनाई देती है उसमे भी यही सुनाई देता है,फॉर इंग्लिश प्रेस वन,हिंदी के लिए दो दबाएं।
हिंदी की स्थिति जानने समझने के लिए इतना ही काफी है कि हिंदी भाषी जनमानस को भाषा चयन के लिए दिए जाने वाले विकल्प में हिंदी दूसरे स्थान पर होती है, इसे और बेहतर ढंग से समझने के लिए कल्पना की जाए की इंग्लैंड में वहां के नागरिकों को भाषा विकल्प में हिंदी पहले और अंग्रेजी दूसरे विकल्प के तौर पर दी जाए तो ये किस सीमा तक अव्यवहारिक अनुभव होगा?
हो सकता है मेरी इन बातों को सुन कर किसी को ऐसा लगे की मैं अंग्रेजी का विरोधी हूं, तो स्पष्ट करना चाहूंगा की मुझे किसी के अंग्रेजी सीखने पढ़ने या बोलने से कोई विरोध नहीं है, जिसमे ऐसी योग्यता हो वो 1 क्या 36 भाषा सीखे अथवा बोले, पूरा राहुल सांकृत्यायन बन जाए। मुझे इस बात में भी कोई संदेह नहीं है की अंग्रेजी भी एक महान भाषा है और वर्तमान परिदृश्य में इसकी उपयोगिता स्वयं सिद्ध है। एक वैश्विक भाषा के रूप में यह निरंतर और भी महत्वपूर्ण होती जा रही है। इसलिए यहां कही गई मेरी बातों को अंग्रेजी के विरोध में न समझते हुए, इसे हिंदी के समर्थन के रूप में देखा जाना चाहिए।
कभी कभी सोचता हूं की कोई विदेशी व्यक्ति जिसकी मातृभाषा अंग्रेजी हो वो दो हिंदीभाषियों को आपस में अंग्रेजी में बात करता देख कर क्या सोचता होगा? अपनी मातृभाषा के प्रति समर्पण प्रत्येक हिंदीभाषी का कर्तव्य होना चाहिए,क्योंकि किसी अन्य भाषा के आगे अपनी मातृभाषा को हेय समझने वाला व्यक्ति जीवन में कभी सफल नहीं हो सकता, जिसका अपनी मातृभाषा पर ही अधिकार न हो वो कोई अन्य दूसरी भाषा सीख पाएगा ये मेरी दृष्टि में असंभव है। ऐसी स्थिति में किसी भाषा का क्या भविष्य होगा ये उसके बोलने वालो पर ही निर्भर lकरेगा और भारत जैसे किसी ऐसे राष्ट्र में, जहां पर राज्यों का विभाजन ही भाषाई आधार पर हुआ हो, हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की क्या आशा की जाए जबकि इसे बोलने वाले ही इसे हाशिए पर डाले हुए हों और इसका प्रयोग उन्हें हीनता बोध करवाता हो।
प्रख्यात साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने इस संदर्भ में कहा है कि -
“किसी भी समाज को अनिवार्यतः अपनी भाषा में ही जीना होगा। नहीं तो उसकी अस्मिता कुण्ठित होगी ही होगी और उसमें आत्म-बहिष्कार के विचार प्रकट होंगे।”
अतः अपनी भाषा को उपेक्षित करना अपनी संस्कृति व सभ्यता को उपेक्षित करने जैसा ही माना जाना चाहिए, और किसी अन्य भाषा के प्रभाव में अपनी भाषा को नकारने वाला व्यक्ति कहीं भी सम्मान का पात्र नहीं हो सकता। इसलिए हम चाहे जितनी भी भाषाएं सीखे हमें अपनी मातृभाषा की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और उसे भी साथ लिए चलना चाहिए, क्योंकि यदि हम ही उसे।छोड़ देंगे तो उसका मृत होना अवश्यंभावी है, और भाषा का मृत होना, संस्कृति के मृत होने जैसा ही है।
कुछ ऐसे ही भाव भारतेंदु हरिश्चंद्र की इन पंक्तियों से भी प्रकट होते हैं।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल॥
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