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सोमवार, 1 मार्च 2021

क्या कोई चारी किसान हड़ताल के बारे में बता सकता हैं?

 'चारी किसान हड़ताल

इस बात पर यकीन करना मुश्किल हो सकता है कि महाराष्ट्र में छह साल तक किसानों का एक आंदोलन चला था.

छह सालों से इसमें शामिल किसी किसान ने खेती नहीं की.

इसकी वजह से भुखमरी की नौबत तक आ चुकी थी लेकिन किसान अपने रुख पर कायम रहे. ये सुनकर आपको ताज्जुब हो सकता है लेकिन यह सच है.

महाराष्ट्र में ये किसान आंदोलन एक इतिहास बन चुका है. इसे 'चारी किसान हड़ताल' कहते हैं.

महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में खोटी व्यवस्था के ख़िलाफ़ किसानों का ये आंदोलन चला था.

ये हड़ताल पहली बार रायगड ज़िले के अलीबाग के नज़दीक चारी गांव में हुई थी. इसकी वजह से महाराष्ट्र में कृषि क्षेत्र में कई अहम बदलाव हुए थे.

बाबा साहब भीम राव आंबेडकर ने इस आंदोलन का समर्थन किया था. उनकी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के बीज भी आप इस आंदोलन में देख सकते हैं.

किसानों और मजदूरों के नेता नारायण नागु पाटिल ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था और अंग्रेजों को घुटने पर आने पर मजबूर कर दिया था.

इस आंदोलन की वजह से महाराष्ट्र में बटाईदार क़ानून लागू हुआ.

हम किसानों के इस सबसे ज्यादा वक्त से चलने वाली हड़ताल के बारे में विस्तार से जानेंगे लेकिन उससे पहले हम संक्षिप्त में खोटी व्यवस्था को समझने की भी कोशिश करेंगे.

खोटी व्यवस्था क्या है?

खोट लोग बड़े जमींदार थे. पेशवा के वक्त से इन्हें मान्यता मिली हुई थी.

इनका मुख्य काम सरकार की ओर से किसानों से राजस्व वसूलना था और उसे सरकार तक पहुँचाना था. जहाँ खोट लोग रहते थे उन गांवों को खोटी गांव कहते थे.

कृषीवल अखबार के संपादक एसएम देशमुख ने चारी किसानों के हड़ताल पर गहराई से अध्ययन किया है.

वो कहते हैं, "खोट लोग खुद को सरकार समझते थे और गरीब किसानों को लूटते थे. ये किसान पूरे साल कड़ी मेहनत करते थे लेकिन आख़िर में सारे अनाज खोट के पास चले जाते थे. सिर्फ़ यही नहीं बल्कि खोट अपने निजी कामों के लिए भी उनका इस्तेमाल करते थे."

इन किसान मज़दूरों को कोल कहते थे. ये दूसरे की ज़मीन पर काम करते थे.

तब शुरू हुई छह साल लंबी किसानों की हड़ताल

'कोंकण क्षेत्र किसान संघ' 1927 में खोट व्यवस्था के ख़िलाफ़ बना था. भाई अनंत चित्रे इस संघ के सचिव थे.

इस संघ ने खोटी व्यवस्था के ख़िलाफ़ रत्नागिरी और रायगढ़ जिले में कई रैलियां निकालीं. रैलियों को नाकाम करने के कई प्रयास हुए.

कई बार नारायण नागु पाटिल और भाई अनंत चित्रे को रैली को संबोधित करने पर पाबंदी लगा दी गई. लेकिन किसानों का समर्थन बढ़ता रहा.

इन हड़तालों को लेकर पेन तहसील में 25 दिसंबर 1930 को एक अहम सम्मेलन आयोजित किया गया. इसे कोलाबा ज़िला सम्मेलन में कहा गया.

उस वक्त राजगढ़ जिला ही कोलाबा हुआ करता था. इस सम्मेलन की अगुवाई नारायण नागु पाटिल और भाई अनंत चित्रे ने की थी.

इस सम्मेलन में पारित हुए प्रस्ताव आगे चल कर आंदोलन के आधार बने.इन प्रस्तावों में एक 28 सूत्री मांग भी थी जिसमें खोटी व्यवस्था को खत्म करने, उपजाने वाले को ही खेत का मालिकाना हक़ देने और ब्याज में कटौती जैसी मांगें शामिल थीं.

इसके अलावा काबुलायत की शर्तों में भी बदलाव की मांग की गई थी.

इस सम्मेलन के बाद नारायण नागु पाटिल और भाई अनंत चित्रे ने आक्रामक रुख अपनाते हुए सबी रैलियों को संबोधित करना शुरू किया और किसानों को जागरूक किया.

तब के कोबाला जिले में खेड, ताला, मनगांव, रोहा, और पेन जैसी जगहों पर हज़ारों किसानों ने रैलियाँ निकालीं.

इसका नतीजा यह निकला कि खोटी व्यवस्था के ख़िलाफ़ 1933 में एक ऐतिहासिक आंदोलन हुआ.

भूखे रहने के बावजूद डटे रहे

खेती नहीं करने को लेकर ये हड़ताल 1933 से लेकर 1939 तक कुल छह सालों तक चली.

चारी के अलावा 25 और गांव इसमें शामिल थे. इन्हीं गांवों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा था.

आंबेडकर का साथ

एसएम देशमुख ने इस पर विस्तार से लिखा कि कैसे आंबेडकर ने इस आंदोलन का समर्थन किया था.

वो बताते हैं, "जब किसानों की ये हड़ताल चल रही थी तब किसानों का एक और सम्मेलन हुआ था. आंबेडकर इस सम्मेलन की अध्यक्षता करने को बुलाया गया था. भाई अनंत चित्रे खुद उन्हें बुलाने मुंबई गए थे."

इस सम्मेलन में खोटशाही खत्म करो, सावकरशाही खत्म करो जैसे नारे लगाए गए थे. इसमें बाबा साहब भीम राव आंबेडकर ने फार्मर्स लेबर पार्टी की स्थापना की घोषणा की. शेतकारी कामगार पार्टी की जड़ें भी चारी में शुरू हुए आंदोलन से निकली थीं. शंकर राव ने इसकी स्थापना की थी.

कुछ सालों के बाद आंबेडकर ने इंडिपेंडेंट पार्टी के 14 विधायकों के समर्थन से मुंबई के विधानसभा में खोटी व्यवस्था के ख़िलाफ़ प्रस्ताव रखा. सरकार ने तब सुनी और मोरारजी देसाई को हड़ताल पर बैठे किसानों से मिलने को भेजा.

पहली बार बटाईदारों का नाम सात-बारा दस्तावेज में दर्ज किया गया.

1948 में बटाईदार कानून पारित हुआ और बटाईदारों को अधिक अधिकार हासिल हुए.

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